भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले कमजोर हो रहा है, जो घरेलू और वैश्विक कारकों का परिणाम है. यदि भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मुद्रा नीति में लचीलापन नहीं अपनाया, तो रुपये में और गिरावट आएगी. भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 86 के नए ऐतिहासिक निम्न स्तर पर पहुंच गया है. बाजार जानकारों का कहना है कि भारती रुपया अगले छह से दस महीनों से 92 रुपये तक गिर सकता है. डॉलर इंडेक्स के मजबूत होने के चलते रुपया कमजोर हुआ है. डॉलर इंडेक्स सितंबर 2024 के अंत से अब तक 8 फीसदी बढ़ चुका है. यह स्थिति भारतीय वित्तीय बाजारों, विशेष रूप से इक्विटी और बॉन्ड, पर गहरा प्रभाव डाल रही है.
हाल ही में, भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 80 के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गया। इस साल जनवरी से अब तक इसमें करीब 7 फीसदी की गिरावट आई है। भारतीय रुपये के अवमूल्यन से आयात महंगा होने जा रहा है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 20.96 फीसदी आयात करता है। इसमें खनिज ईंधन, तेल, विद्युत मशीनरी, परमाणु रिएक्टर, यांत्रिक उपकरण, आभूषण और कई अन्य चीजें शामिल हैं। चूंकि ये सभी आयात डॉलर में किए जाते हैं, इसलिए डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा के कमजोर होने से इन क्षेत्रों पर असर पड़ रहा है।
अब, यह आम आदमी पर दोहरा बोझ है, क्योंकि देश उच्च मुद्रास्फीति से गुजर रहा है और हर गुजरते दिन के साथ रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं। रुपये का यह गिरना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक खतरा है, जो पहले से ही मुद्रास्फीति, व्यापक बेरोजगारी, बिजली संकट और उच्च करों से जूझ रही है। पिछले महीने एक आपातकालीन बैठक में RBI ने भी ऐसे समय में अपनी प्रमुख ब्याज दरों में वृद्धि की, जब अत्यधिक मुद्रास्फीति का जोखिम बढ़ रहा है और आर्थिक विकास गतिविधि में मंदी की आशंका बनी हुई है। रुपये के अवमूल्यन के परिणामस्वरूप महंगा आयात होता है, जिसका स्थानीय कीमतों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, जो बाद में बढ़ने लगते हैं। यह घरेलू ईंधन की कीमतों में और भी उछाल ला सकता है, जो बदले में परिवहन लागत में वृद्धि के परिणामस्वरूप अन्य आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों को बढ़ा देगा।
अगर कोई देश अपने निर्यात से ज़्यादा आयात करता है, तो डॉलर की मांग आपूर्ति से ज़्यादा होगी और भारत में रुपया जैसी घरेलू मुद्रा डॉलर के मुक़ाबले कमज़ोर हो जाएगी। मुद्रा के गिरने का मुख्य कारण विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPI) द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था से निकाला जा रहा पैसा है। पिछले छह महीनों में FPI ने अर्थव्यवस्था से 2.32 ट्रिलियन रुपए निकाले हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा बढ़ती हुई मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में की गई बढ़ोतरी के कारण था।
इन दिनों रुपये में गिरावट मुख्य रूप से कच्चे तेल की ऊंची कीमतों, विदेशों में डॉलर की मजबूती और विदेशी पूंजी के बहिर्गमन के कारण है। इस साल की शुरुआत से ही रुपये में गिरावट जारी है, खासकर आपूर्ति शृंखला में व्यवधान के बाद।
जैसे-जैसे भारत से पैसा बाहर जाता है, रुपया-डॉलर विनिमय दर प्रभावित होती है, जिससे रुपये का अवमूल्यन होता है। इस तरह के अवमूल्यन से कच्चे तेल और कच्चे माल की पहले से ही ऊंची आयात कीमतों पर काफी दबाव पड़ता है, जिससे खुदरा मुद्रास्फीति के अलावा उच्च आयातित मुद्रास्फीति और उत्पादन लागत का मार्ग प्रशस्त होता है। भारत अपनी पेट्रोलियम आवश्यकताओं का 80 प्रतिशत विदेश से आयात करता है। चूंकि भारत ज्यादातर कच्चे तेल, धातु, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि सहित आयात पर निर्भर करता है, इसलिए देश अमेरिकी डॉलर में भुगतान करता है। अब अगर रुपया कमजोर है, तो उसे समान मात्रा की वस्तुओं के लिए अधिक भुगतान करना होगा। ऐसे मामलों में, कच्चे माल और उत्पादन की लागत बढ़ जाती है जिसका बोझ उपभोक्ताओं पर पड़ता है। कार खरीदना भी महंगा हो जाएगा क्योंकि मूल्य के हिसाब से कार के कुल कच्चे माल का 10-20 प्रतिशत आयात किया जाता है।
इलेक्ट्रॉनिक सामान, जैसे मोबाइल फोन और अन्य उपकरण भी महंगे होने की संभावना है।
ईंधन खरीदना महंगा हो जाने से हवाई यात्रा भी महंगी हो जाएगी।
मोदी सरकार की अदूरदर्शी नीतियों के कारण पिछले 8 वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में रुपए में भारी गिरावट आई है। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान भारतीय रुपया मजबूत था और 1 डॉलर की कीमत 58 भारतीय रुपए थी। पिछले 8 वर्षों में भारतीय रुपए का मूल्य धीरे-धीरे कम होता गया और अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी कहा करते थे कि जब रुपए का मूल्य गिरता है तो भारत की प्रतिष्ठा गिरती है। अब जब रुपया अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है तो क्या अब देश की प्रतिष्ठा नहीं गिर रही है? प्रधानमंत्री मोदी देश के सामने मौजूद इन मुद्दों पर बात करने को तैयार नहीं हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने भी रुपए के मूल्य को राष्ट्रीय गौरव से जोड़ा था और कहा था कि यूपीए सरकार और रुपए के मूल्य में प्रतिस्पर्धा है कि कौन तेजी से गिर सकता है।
2014 में जब भाजपा ने आम चुनाव जीता था, तब भारतीय रुपये की विनिमय दर 58.66 रुपये प्रति डॉलर थी। सरल शब्दों में कहें तो 1 डॉलर 58.66 रुपये के बराबर था। तब से, इसकी कीमत लगातार गिरती रही है और 1 डॉलर के मुकाबले 80 रुपये पर पहुंच गई है।
रुपये की निरंतर गिरावट को रोकने में असमर्थता के कारण मोदी सरकार अपनी सारी विश्वसनीयता खो रही है। अब रुपया मार्गदर्शक मंडल की आयु पार कर चुका है। अब यह कितना और गिरेगा? सरकार की विश्वसनीयता कितनी और गिरेगी? मोदी सरकार झूठ और छल के बहाने कब तक छिपती रहेगी, जबकि उसकी सरकार की गलत नीतियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों ने आम जनता की परेशानी को और बढ़ा दिया है। नोटबंदी और अचानक देशव्यापी तालाबंदी की दोहरी मार के कारण लोगों को आय के साधन खत्म होने से परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। महंगाई के कारण समाज का हर वर्ग प्रभावित है और निम्न मध्यम वर्ग के लिए अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करना बहुत मुश्किल हो गया है।
बड़ी संख्या में भारतीय छात्र विदेश में पढ़ाई कर रहे हैं। रुपये के मूल्य में गिरावट के कारण उन्हें विदेश में पढ़ाई के लिए अधिक रुपये खर्च करने होंगे। विदेश में पढ़ने वाले छात्रों का एक बड़ा हिस्सा मध्यम वर्गीय परिवारों से है। छात्रों के परिवारों पर विदेश में अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे उधार लेने का बहुत दबाव होगा। कुल मिलाकर आर्थिक स्थिति बहुत खराब है और निकट भविष्य में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में भारतीय रुपये की रिकवरी की कोई संभावना नहीं है।