अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के, चंद्रमा की कक्षा में चक्कर लगा रहे अंतरिक्ष यान ने भारत के चंद्रयान-3 मिशन के तहत भेजे गए विक्रम लैंडर की चंद्रमा पर स्थिति का सफलतापूर्वक पता लगा लिया है. अमेरिकी एजेंसी ने यह जानकारी दी. नासा ने बताया कि लेजर रोशनी को लूनर रेकॉनिसेंस ऑर्बिटर (एलआरओ) और विक्रम लैंडर पर एक छोटे रेट्रोरिफ्लेक्टर के बीच प्रसारित और परावर्तित किया गया, जिससे चंद्रमा की सतह पर लक्ष्य का सटीकता के साथ पता लगाने की एक नई शैली का तरीका मिल गया.
लैंडर चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में मंज़िनस क्रेटर के पास एलआरओ से 100 किलोमीटर दूर था, जब एलआरओ ने पिछले साल 12 दिसंबर को इसकी ओर लेजर तरंगें भेजीं. ऑर्बिटर ने विक्रम पर लगे एक छोटे रेट्रोरिफ्लेक्टर से वापस लौटकर आई रोशनी दर्ज की जिसके बाद नासा के वैज्ञानिकों को पता चला कि उनकी तकनीक काम कर गई है. किसी वस्तु की ओर लेजर तरंगों को भेजना और प्रकाश को वापस लौटने में लगने वाले समय की माप, जमीन से पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले उपग्रहों के स्थानों का पता लगाने के लिए आमतौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला तरीका है.
वैज्ञानिकों ने बताया कि चंद्रमा पर ‘रिवर्स तकनीक’ का उपयोग करने के कई लाभ हैं. इस तकनीक में एक गतिमान अंतरिक्ष यान से लेजर तंरगों को, लक्ष्य के सटीक स्थान को निर्धारित करने के लिए एक स्थिर अंतरिक्ष यान में भेजा जाता है. नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में टीम का नेतृत्व करने वाले जियाओली सन ने कहा, ‘हमने प्रदर्शित किया है कि हम चंद्रमा की कक्षा से सतह पर अपने रेट्रोरिफ्लेक्टर का पता लगा सकते हैं.’ रेट्रोरिफ्लेक्टर बताता है कि रोशनी स्रोत की ओर परावर्तित होती है जिससे वस्तु का पता लगाया जा सकता है.
नासा और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की साझेदारी के तहत विक्रम पर लगे रेट्रोरिफ्लेक्टर विकसित किए गए. नासा के एक बयान में सन ने कहा, ‘अगला कदम तकनीक में सुधार करना है ताकि इनका नियमित तौर पर उपयोग उन मिशन में किया जा सके जो भविष्य में इन रेट्रोरिफ्लेक्टर का उपयोग करना चाहते हैं.’ केवल दो इंच या पांच सेंटीमीटर चौड़े, नासा के छोटे लेकिन शक्तिशाली रेट्रोरिफ्लेक्टर में आठ क्वार्ट्ज-कोणीय-क्यूब प्रिज्म हैं जो एक गुंबद के आकार के एल्यूमीनियम फ्रेम में स्थापित हैं. इसे लेजर रेट्रोरिफ्लेक्टर ऐरे भी कहा जाता है.