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ट्रिपल ‘L’ के ट्रैप में झारखंड, लव जिहाद, लैंड जिहाद और अब…लेबर जिहाद! आदिवासी परिवारों पर टूटता दुखों का पहाड़

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झारखंड में आबादी के समीकरण बदलने के साथ ही यहां लव जिहाद, लैंड जिहाद के साथ ‘मजदूर जिहाद’ जैसा जैसे मामले भी सामने आने लगे हैं. खास तौर पर भोले-भाले आदिवासी इसके शिकार हो रहे हैं. स्थिति यह है कि शासन सत्ता के स्तर पर भी न तो संवेदना है और न ही कोई कार्रवाई हो पा रही है. खास बात यह की न ही इस गंभीर समस्या की ओर सरकार और प्रशासन का ध्यान है. दरअसल, बाहर के राज्यों में झारखंड के बहुत सारे मजदूर पलायन करके जाते हैं, मेहनत मजदूरी करते हैं और घर वापस लौट भी आते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो ‘मजदूर जिहाद’ के शिकार हो जा रहे हैं. ना तो उनके पैसे घर आते हैं और ना ही उनकी कोई खोज खबर ही आती है. परिजन बेहाल और परेशान रहते हैं और जीवन को सुबक-सुबक कर बिताने के के अतिरिक्त कोई रास्ता भी नहीं दिखता. अपनी पीड़ा किसे बताएं यह भी सोच कर मन मसोस कर रह जाते हैं. आइये इसके बारे में विस्तार से जानते हैं कि ‘मजदूर जिहाद’ कैसे अस्तित्व में आया है और इसके पीछे कौन है.

केस स्टडी जानने से पहले आपको यह बता दें कि ‘मजदूर जिहाद’ के बारे में प्रशासन भी अवगत है और सरकार की नजर में यह समस्या है, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. हम आपके लिए तीन केस स्टडी झारखंड के दुमका जिले से सामने लाए हैं जो इस ‘मजदूर जिहाद’ जैसे टर्म की तस्दीक करते हैं. बता दें कि दुमका जिले में आदिवासी मजदूरों का शोषण एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. विशेष रूप से मुस्लिम मजदूर ठेकेदारों के माध्यम से इस तरह के उत्पीड़न किए जाने की घटनाएं बढ़ रहीं हैं. मजदूरों को काम दिलाने के बहाने जम्मू-कश्मीर और लेह-लद्दाख जैसे दूरदराज के क्षेत्रों में ले जाया जाता है, लेकिन काम पूरा होने के बाद न तो उन्हें उनका मेहनताना मिलता है और न ही वे घर लौट पाते हैं. ऐसा ही एक मामला दुमका जिला के काठिकुंड थाना क्षेत्र के जंगला गांव का है, जहां एक ही गांव के तीन परिवार के परिजन वर्षों बाद भी नहीं लौट पाए हैं. परिजनों का आरोप है कि मेट आलम अंसारी काम दिलाने के बहाने जम्मू कश्मीर ले गया था, लेकिन वर्षो बीत जाने के बाद भी ना तो परिजन लौटे और ना ही किसी तरह की जानकारी दी गई.

दुमका जिला के काठिकुंड थाना क्षेत्र के जंगला गांव के तीन आदिवासी परिवार वर्षों से अपने परिजनों की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जिन्हें आलम अंसारी नाम का ठेकेदार काम दिलाने के बहाने जम्मू-कश्मीर लेकर गया था. तीनों आदिवासी मजदूर अब तक घर नहीं लौटे हैं. इस वजह से इनके परिवार गहरे संकट में हैं. इन्होंने दुमका पुलिस और राज्य सरकार से गुहार लगाई है, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है. आइये हम केस स्टडी के जरिये मुद्दे की गहराई समझते हैं.

जंगला गांव के क्रिस्टोफन मुर्मू एकमात्र कमाने वाले थे, लेकिन वह आज तक नहीं लौटे. उसके घर में एक वृद्ध मां और एक बेटी समी मुर्मू अकेली किसी तरह जिंदगी काट रही है. सुमी मुर्मू बताती हैं कि वर्षों पहले पिता क्रिस्टोफर मुर्मू को काम दिलाने के लिए एक मुस्लिम ठेकेदार जम्मू-कश्मीर ले गया जो अब तक नहीं लौटे. अकेले किसी तरह जिंदगी बसर कर रही हैं और उन्हें देखने वाला सिवाय दादी के कोई नहीं है.

वहीं, दूसरा मामला एक अन्य आदिवासी महिला मनी किस्कू का भी है जिनके पति शिवधन मुर्मू भी आज तक नहीं लौटे हैं. मनी किस्कू बताती हैं कि एक ही गांव के तीन लोग डेहरी मरांडी, शिवधन मुर्मू और क्रिस्टोफर मुर्मू काम करने के लिए बाहर गए थे, लेकिन अब तक नहीं लौटे हैं. इन तीनों को ही मुस्लिम ठेकेदार ही अपने साथ बाहर ले गए थे.

तीसरा मामला डेहरी मरांडी का है जो वर्षों बीत जाने के बाद भी नहीं लौटे हैं. डेहरी मरांडी की पत्नी जुबा सोरेन बताती हैं कि ठेकेदार आलम अंसारी इनको काम दिलाने के बहाने जम्मू कश्मीर ले गया था, लेकिन वे अब तक नहीं लौटे हैं. वहीं, अब तीनों परिवार के लोग काठीकुंड थाना में आवेदन देकर मेट आलम अंसारी पर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं.

इस मामले में काठिकुंड थाना प्रभारी त्रिपुरारी कुमार ने बताया कि जंगला गांव के तीन लोग लापता होने की शिकायत मिली है. मामला 4 साल पुराना है और शिकायत पहली बार थाने में पहुंची है. पुलिस इस शिकायत के मद्देनजर सभी बिंदुओं पर जांच-पड़ताल कर रही है. पुलिस पीड़ित परिवारों के संपर्क में है और जांच के बाद ही इस पर कुछ स्पष्ट कहा जा सकता है.

मुस्लिम ठेकेदारों का प्रभाव
एक जानकारी के अनुसार, दुमका जिला और उसके आस-पास के क्षेत्रों में लगभग 130 मुस्लिम मेट्स (ठेकेदार) सक्रिय हैं. दुमका में ही 14 मुस्लिम ठेकेदार हैं, जबकि मसलिया में 23, टोंगरा में 12, रामगढ़ में 6, जरमुंडी में 5 और जामा में 4 मेट्स यानी ठेकेदार लोग सक्रिय हैं. इन मेट्स द्वारा आदिवासी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देकर काम करवाया जाता है, जबकि मजदूरों को मिलने वाली असल राशि अक्सर हड़प ली जाती है.

संख्यात्मक असमानता और शोषण
आदिवासी जनसंख्या का कम होना और उनकी आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी स्थिति का फायदा मुस्लिम मेट्स (ठेकेदार) उठा रहे हैं. ये आदिवासी मजदूरों को बाहरी राज्यों में ले जाकर शोषण करते हैं, और फिर उन्हें वापस नहीं आने देते. ये एक तरह से ‘मजदूर जिहाद’ की तरह देखा जा सकता है, जहां आदिवासियों की जिंदगी और उनके परिवारों की उम्मीदों को तोड़ा जा रहा है.

आधार कार्ड और बैंक पासबुक की जब्ती
बताया जाता है कि ये मुस्लिम मेट्स द्वारा इन आदिवासियों का शोषण सिर्फ मजदूरी नहीं देने तक सीमित नहीं है. मजदूरों को काम पर भेजने से पहले उनके आधार कार्ड, बैंक पासबुक और एटीएम कार्ड तक जब्त कर लिये जाते हैं. इसका मतलब यह है कि ये उन्हें पूरी तरह से असहाय बना देते हैं, जिससे मजदूरों के पास कोई कानूनी सहारा भी नहीं बचता है.

मालामाल होते मुस्लिम मेट्स
स्थानीय लोगों का कहना है कि कुछ मुस्लिम मेट्स अवैध तरीके से काफी संपत्ति अर्जित की है. अगर इस पर गहन जांच की जाए, तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आ सकते हैं. दुमका और आस-पास के इलाकों में मेट्स की अवैध संपत्ति का मामला भी बड़ा सवाल खड़ा करता है.